जैविक पशुधन उत्पादन और पशु स्वास्थ्य प्रबंधन से अधिक उत्पादन एवं आमदनी

जैविक पशुधन उत्पादन 

कई दशको से अत्याधुनिक तकनीकी उपयोग करने के बाद आज हम महसूस करने लगे है की यदि हम ईसी तरह अपने परंपरागत पद्धति को छोडते है तथा आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति अपनाते रहेंगे तो हमे तरह तरह के समस्यायों से जूझने के लिए तैयार रहना होगा जैसे की आंटीबीओटिक रेसिसटंके, पेस्टिसाएड का दुसप्रभाव , रोग प्रतिरोधक छमता का ह्रास एत्यादी। लेकिन आज के समय मे हमारे समाज के पढे लिखे लोग सोश्ल मीडिया तथा इन्फॉर्मेशन टेक्नालजी के माध्यम से जैविक पशुधन उत्पाद की महता को भली भाति समझने लगे है, ईसी का परिणाम है की आज जैविक पशुधन उत्पाद की मांग दिनो दिन बढ़ती जरही है। लोग तीन गुना मूल्य भी चुकाने के लिए तैयार है जैविक सुध पशुधन उत्पाद जैसे की दूध, अंडा , मांश एत्यादी केलिए। अतः ग्रामीण छेत्रों के हमारे किसान भाई जैविक पशुधन सह कृषि का उत्पादन करके ज्यादा से ज्यादा आमदनी कर सकते है। आज समय आगया है की हम अपने पूर्वजो की धरोहर पुरानी परंपरागत पद्धति को भी अपने जीवन शैली मे जगह दे साथ साथ आधुनिक पद्धति को अपनाते हुये ।

जैविक पशुधन उत्पादन (organic livestock production) एक प्रकार का खाद्य तंत्र है। जिसमें पशुओं के कल्याण, पर्यावरण सुरक्षा, न्यूनतम मात्रा में औषधियों का प्रयोग और हानिकारक तत्वों के बिना उत्पादन होता है। जैविक तंत्र इस प्रकार से विकसित किया जाता है कि जिसमें- पशुओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि, पशुओं के सुख और आराम में वृद्धि, दूध और मांस में अवशिष्ठ तत्व में कमी और पशुओं और पर्यावरण को कम हानि हो। जैविक पशुधन प्रबंधन में पश उपचार के बजाए बचाव पर जोर देते है। ताकि, पशु तनाव से मुक्त रहे। पशु अपना नैसर्गिक व्यवहार प्रकट करें और उच्च गुणवत्ता युक्त चारा खा सके। जैविक पशुधन प्रबंधन में पशुओं का भोजन इस प्रकार का होता है जो पशु के पोषण की जरूरतों को पूरा कर सके। जिससे, पशुओं के रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि हो सके।

पशु स्वास्थ्य प्रबंधन के तरीके 

जब भी कोई पशु फार्म जैविक फार्म  में परिवर्तित होता है तो सर्वप्रथम पशु चिकित्सक को पशुओं में वर्तमान में होने वाले रोगों का खाका तैयार करना चाहिये। उनकी रोकथाम के तरीकों का भी पता लगाना चाहिये। इसके लिए जैविक फार्म पर निम्न प्रकार की रणनीति अपनाई जा सकती है-

  1. पशुओ में रोगों की पहचान करना।
  2. बीमारी के रोगाणु का पता लगाना।
  3. रोगाणु के जीवन चक्र को समझाना।
  4. वर्तमान में हो रहे उपचार की पहचान करना।
  5. पशुओं का उपचार करने के बजाए इस प्रकार के तरीकों को अपनाना जो रोगाणु के जीवन चक्र को तोड़ सके।
  6. वैकल्पिक उपचार के तरीको को अपनाना।
  7. उपचार से पुन: सामान्य होने के समय का निर्धारण करना।

वैकल्पिक उपचार की पद्धतियां

जैविक पशुधन (organic livestock production) प्रबंधन में वैकल्पिक उपचार की पद्धतियों (जैसे होम्योपैथी और आयुर्वेदिक) को अपनाने पर जोर दिया जाता है। एलोपैथी को उसी परिस्थिति में उपयोग में लाया जाता है जब यह वैकल्पिक पद्धतियां कारगर नहीं हो पाती।

रोगों से रोकथाम के उपाय

जैविक सुरक्षा

जैविक सुरक्षा के लिए जैविक पशु प्रबंधन के मापदंड निम्नानुसार है-
नये पशुओं को ऐसे फार्म से खरीदना चाहिये। जहां पर बीमारियों की वर्तमान स्थिति का पता हो अथवा जिनके पास संक्रामक बीमारियों से मुक्तहोने का प्रमाण पत्र हो।
पशुओं को सीधे ही जैविक फार्म से खरीदना चाहिये ना कि खुले बाजार अथवा पशु मंडियों से।
नए पशुओं को बाड़े में शामिल करने से पहले 4 हफ्तों तक अलग रखना चाहिये।
नए पशुओं को अलग रखने के दौरान सभी गायों के थनों को थनैला रोग अथवा दूसरे रोगों को जांच लेना चाहिये।

पशु आवास

पशुओं का आवास ऐसा होना चाहिये जो पशुओं की सभी जैविक, भौतिक और व्यवहारिक आवश्यकताओं को पूरा कर सके।
पशु आवास में जानवरों को आसानी से चारा पानी मिल सके।
पशु आवास में हवा का प्रवाह हो। हवा की नमी, धूल के कणों का स्तर नियंत्रित करने की कारगर व्यवस्था हो।
पशुओं की संख्या इतनी ही हो कि सभी पशुओं को पर्याप्त जगह मिल सके।

पशु प्रजनन

जैविक फार्म पर पशुओं में प्रजनन की नीति इस प्रकार हो कि स्थानीय नस्लों को प्राथमिकता मिल सके। पशुओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता को पशु उत्पादन क्षमता से ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिये।
पैदा होने वाली संतानों में बीमारियों की उपस्थिति को रेखांकित करना चाहिये। इस प्रकार के जानवरों का चयन करना चाहिये, जिनकी संतानों में कम से कम बीमारियां पाई जाती हो।
ऐसी पशु नस्लों का चयन करें। जिनमें हिस्टोकोमैपटेबिलिटी. कॉम्प्लेक्स एंटीजन मद हो। जो कि कुछ संक्रामक बीमारियों के प्रति प्रतिरोधी होता है।
ऐसी पशु नस्लों का चयन करें। जिनमें रोग प्रतिरोधी क्षमता की आनुवांशिकता ज्यादा हो।

पशु पोषण

लगभग सभी पोषक तत्व रोग प्रतिरोधकता को बढ़ाने में मदद करते है । अत: पोषण में कमी अथवा अधिकता पशुओं को संक्रमण के प्रति संवेदनशील बनाती है।

जैविक फार्म प्रबंधन

बछड़ों को जैविक दूध लगभग 3 माह की उम्र तक देना चाहिए।
पोषण तंत्र इस प्रकार का हो कि चारागाह का पूर्ण उपयोग हो सके और आसानी से उपलब्ध हो सके।
पशु आहार में आनुवांशिक अभियांत्रिकी से तैयार जीवाणु, प्रतिजैविक (एंटीबायोटिक), दूसरी दवा, हार्मोन्स और वृद्धि कारक तत्व आदि का प्रयोग नहीं होना चाहिये। अगर चारा, घर में उत्पादित हो तो उसके पोषक तत्वों में क्या कमी है। इसका पता होना चाहिये, खासतौर से जहां मिट्टी में पोषक तत्व कम पाये जाते हो।
चारे और खून में पोषक तत्वों की कमी का प्रयोगशाला में पता करके ही उपचार लेना चाहिये। इन पोषक तत्वों की पूर्ति इंजेक्शन, गोली अथवा खनिज तत्वों की ईंट के द्वारा कर सकते है।

स्वच्छ चराई

स्वच्छ चराई की नीति का उद्देश्य अन्त:परजीवियों के संक्रमण की संभावना को कम करना है।
अन्त:परजीवियों के खतरे को हम 3 से 4 बार चराई कराके कम कर सकते है।
पशु रोगों के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो, उनको पहले चराना चाहिये।
जो भेड़े जुड़वा बच्चों को जन्म देती हो उनको पहले चराना चाहिये।
वयस्क पशुओं को छोटे पशुओं से पहले चाराना चाहिए।
जैविक फार्म पर पशु चिकित्सा
जैविक फार्म पर एलोपैथी पद्धति से उपचार करना निषिद्ध होता है।

एलोपैथी उपचार की संख्या

मांस के लिए उपयोग होने वाले पशुओं में 12 महीनो में 1 बार एंटीबॉयोटिक्स अथवा एलोपैथी पद्दति से उपचार करने की अनुमति होती है।
प्रजनन के काम आने वाले पशुओं में 12 महीनो में 2 बार एंटीबॉयोटिक्स अथवा एलोपैथी पद्दति से उपचार करने की अनुमति होती है।
थनेला रोग के उपचार हेतु 12 महीनो में 2 बार एलोपैथी से उपचार करने की अनुमति होती है।

एंटीबॉयोटिक्स का उपयोग

एंटीबॉयोटिक्स का उपयोग केवल शल्य क्रिया, दुर्घटना अथवा उन परिस्थितियों में किया जा सकता है। जब दूसरी दवाईयाँ प्रभावहीन हो।

टीको का उपयोग

टीकाकरण उन्ही परिस्थितियों में करना चाहिये जब संक्रामक बीमारियों का खतरा हो अथवा आसपास संक्रामक बीमारियाँ हो।

खनिज लवणों का उपयोग

जब घर पर उगाये गए चारे अथवा मिट्टी में कुछ पोषक तत्वों की कमी हो तो ही खनिज लवण पशुओं को देना चाहिये। कैल्शियम और मैग्नीशियम को खिलाने की अनुमति होती है।

रिकॉर्ड रखना

जब कभी पशु चिकित्सा के लिए दवाओं का उपयोग हो तो उसका रिकॉर्ड जरूर रखना चाहिये। साथ ही, रोग का निदान, दवा की मात्रा, दवा देने का तरीका, उपचार की अवधि और दवा के शरीर में रहने की अवधि को भी रिकॉर्ड करना चाहिये।

स्वस्थ पशु से ही संभव अधिक उत्पादन एवं आमदनी

किसानों को चाहिए की स्वस्थ पशु रखें जिससे अधिक उत्पादन एवं आमदनी प्राप्त किया जा सकता है। एक या अधिक पशुओं के समूह को, जिन्हें कृषि सम्बन्धी परिवेष में भोजन, रेशे तथा श्रम आदि सामग्रियाँ प्राप्त करने के लिए पालतू बनाया जाता है, पशुधन के नाम से जाना जाता है। हमारे पशुधन, जैसे- गाय, भैंस, भेड़, बकरी आमतौर पर जीविका अथवा लाभ के लिए पाले जाते हैं। पशुओं को पालना आधुनिक कृषि का एक महत्वपूर्ण भाग है। पशुपालन व्यवसाय में पशु स्वास्थ्य संरक्षण का अत्यधिक महत्व है। पशु के स्वस्थ एवं निरोग होने पर ही वह अपनी क्षमता के अनुरूप उत्पादन दे सकता है। पशुओं की बीमारियों से पशुओं का स्वास्थ प्रभावित होता है, उत्पादकता घट जाती है तथा मनुष्यों में भी संक्रमण हो सकता है पशु पालन के द्वारा पशुओं के रोगों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता का विकास तथा उन्हें कम किया जा सकता है अथवाा उन्हें एंटी-बायोटिक्स तथा टीकों की सहायता से कम किया जा सकता है।

विकासशील देशों में पशुपालन में पशुओं के रोगों को सहन किया जाता है जिसके परिणामस्वरूप काफी कम उत्पादकता प्राप्त होती है, विशेष रूप से खराब स्वास्थ्य वाले विकासशील देशों के पशु समूहों में अक्सर किसी कृषि नीति को लागू करने में लिया गया पहला कदम उत्पादकता में लाभ के लिए रोग प्रबंधन ही होता हैै। हमारे देश में पशुपालन कार्य अधिकतर गांवों में किसानों, अनपढ़ मजदूरों व महिलाओं द्वारा किया जाता है। प्रायः इन्हें पशुओं की देखभाल के सम्बन्ध में पर्याप्त वैज्ञानिक जानकारी नहीं होती है। पशुओं के रखरखाव, खानपान, तथा स्वास्थ्य रक्षा के लिए आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति का ध्यान रखने से पशुओं की उत्पादन क्षमता में वृद्धि होकर, अधिक लाभकरी होती है।

पशुपालन से बचेगी खेती

खेती और पशुपालन का रिश्ता आज टूट रहा है, लेकिन अगर इसको बरकरार रखा जाय तो न केवल हमें भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए गोबर खाद मिलेगी बल्कि बड़ी आबादी को रोजगार भी मिलेगा पशु शक्ति के बारे में कई विशेषज्ञ व वैज्ञानिक भी यह मानने लगे है कि यह सबसे सस्ता व व्यावहारिक स्रोत है। भारत समेत सारी दुनिया में आज भी खेती और पशुपालन ही सबसे ज्यादा रोजगार देेने वाले क्षेत्र है। ग्रामीण अर्थव्यस्था केवल खेती किसनी से ही नहीं, पशुपालन और छोटे-छोटे लघु-कुटीर उद्योग व लघु व्यवसायों से संचालित होती रही है। मवेशी एक तरह से लोगों के फिक्स्ड डिपाजिट हुआ करते थे। जिन्हें बहुत ही जरूरत पड़ने पर वह बेच भी देते है। गाय की पूजा की जाती है, उन्हें अनाज खिलाया जाता है। अधिक दूध उत्पादन और नस्ल सुधारने के नाम पर जो प्रयोग किये जा रहे है, उनके हानिकारक नतीजे सामने आ रहे है। गायों व भैंसों से ज्यादा दूध निचोड़ने के लिये इंजेक्शन का इस्तेमाल हो रहा है, बूढ़ी होने पर बूचड़खाने को बेचा जा रहा है। इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता है। आज आधुनिकरण के कारण बहुत कम जमीन उपजाऊ रह गई है।

बीमारियों से बचाव, उपचार करने की तुलना में बेहतर है

पशुपालकों को प्रतिदिन अपने पशुओं का ध्यान पूर्वक निरीक्षण करना चाहिए। अस्वस्थ प्शुओं का पता लगते ही तुरन्त अपने ज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर उपचार कर सकें तो प्राथमिक उपचार कर उसके बाद शीघ्र पशु चिकित्सक से सम्पर्क करना चाहिए।

पशुपालक अपने पशु की अस्वस्थता को पहचान सकते है

रोगी पशु के हावभाव, गति तथा व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है। यदि पशु अपनी गर्दन नीचे लटकाये खड़ा होता है तो यह समझने में देरी न करें की पशु को कोई बीमारी है। रोगी पशु अपने झुंड से अलग खड़ा होता है। खाने पीने में कमी आ जाती है तथा जुगाली करना बंद कर देते हैं। पशु की खुरदरी तथा शुष्क त्वचा बीमारी की सूचक होती है। बालों का गिरना, बालों का बड़ा होना, पशु के थूथन तथा नाक से कोई द्रव पदार्थ नहीं निकलना चाहिए। रोगी पशु की आंखें घंसी हुई स्थिर तथा घूरती हुई मालूम पड़ती है। पशु का पेसाब गहरा पीला या खूनी होना अथवा उसका दुर्गन्धमय होना रोग के मुख्य कारण है। कृपया पशुपालकों से अनुरोध है प्रतिदिन पशुओं की देखरेख अवश्य करें। पशुओं को प्रचुर मात्रा में स्वच्छ जल पिलायें, पशुओं के शरीर में लगभग 65 प्रतिशत पानी तथा दूध में 87 प्रतिशत पानी होता हैं। पशु के शरीर में पानी का इस्तेमाल शरीर का तापमान बनाये रखने के लिए, चमड़ी, पेशाब, फेफडे़, गोबर, व दुधारू पशुओं में दूध बनाने में होता हैं। तालाबों का गन्दा पानी पिलाना पशुओं में अनेक बीमारियों तथा बाह्य एवं आंतरिक परजीवी कीड़ों कोे जन्म देता है। पशु अपनी इच्छा से जितना पानी पीये, उतना पानी (गर्मियों में 5 बार तथा सर्दियों के दिनों में 3 बार) पिलायें। यदि पशु के शरीर में पानी की कमी हो जाती हैं, तो अन्य किसी और कमी की तुलना में जल्दी ही मर जाता हैं।

दुधारू पशुओं में पानी की कमी का सीधा प्रभाव गर्भित पशुओं में बच्चों की बढ़वार एवं दुग्ध उत्पादन पर पड़ता हैं। पशुओं को पानी की जरूरत सूखे व हरे चारे, सूखे दाने, गर्मी, सर्दी तथा बरसात व दूध उत्पादन क्षमता के हिसाब से होती है। जब हम पशु को सूखे दाने, प्रोटीन, खनिज लवण, खली-बिनोला, गुड़ आदि देते हैं, तब उस पशु को अधिक मात्रा में साफ व ताजे पानी की जरूरत होती हैं। परन्तु हम पशुओं को पानी पिलाने पर विशेष ध्यान नहीं देते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि किसान अपनी गाय-भैंस, बकरी एवं अन्य पशुओं के लिए भरपूर मात्रा में स्वच्छ जल मौसम के हिसाब से व किस प्रकार का चारा खिलाया (गेंहूं, जौ, चना, मटर, मसूर, उर्द का भूसा, ज्वार-बाजरा की कर्वी, हराचारा) है तथा पशु के वजन एवं प्रतिदिन दूध देने की मात्रा के हिसाब व समय से पिलायें।

गाय-भैंसों में थनैला रोग

यह दुधारू गाय-भैसों की छूत से लगने वाली बीमारी है, जो जीवाणु या फफूंदी तथा अन्य रोगाणुओं द्वारा होती है। यह रोगाणु गन्दे फर्श, मिट्टी, दूधियों के गन्दे हाथों से थन द्वारा अयन में प्रवेश कर जाते हैं। इस रोग के कारण अधिक दूध देने वाले पशु तथा उच्च गुणवत्तायुक्त आहार खाने वाले पशु ज्यादा प्रभावित होते हैं। रोगी पशु के थन सूज जाते हैं तथा उनमें गाँठें पड़ जाती हैं। दूध दुहते समय पशु को दर्द व बेचैनी होती है। दूध पतला एवं रक्त-मवाद युक्त होता है। दुग्ध-दोहन से पहले या बाद में हाथों को एन्टिसेप्टिक घोल से धोकर पोंछ लेना चाहिए। पशु के बांधने की जगह को स्वच्छ रखना चाहिए। दूध दोहने का सही तरीका अपनायें। स्वस्थ्य पशुओं का दुग्ध दोहन पहले तथा थनैला रोग से ग्रस्त पशु का दुग्ध बाद में निकालं। रोग ग्रस्त पशुओं को स्वस्थ्य पशु से अलग रखें। दुधारू गाय-भैंस जब दूध देना बन्द कर दें, उसके चारों थनों में दवा का एक-एक ट्यूब भरकर छोड दें तथा पशुओं को विटामिन “ई“ एवं सेलेनियम युक्त खनिज मिश्रण खिलायें। थनैला बीमारी होने पर 2-3 दिन के अंदर तुरंत पशु चिकित्सक को दिखायें। गाय-भैंस के थनों से खून अथवा मवाद, सूजन आ जाये तो बर्फ की मालिश करनी चाहिये तथा फिर उस पर कालीजीरी का लेप कर देना चाहिए। पशु को एक पाव नीबूं का रस तथा एक पाव तिल्ली का तेल मिलाकर सुबह-शाम 2-3 दिन पिलाने से अति शीघ्र आराम मिलता है।

दुधारू पशुओं का चयन
  • बैंक के तकनीकी अधिकारी/पशुचिकित्सक आदि की सहायता से स्वस्थ्य एवं अधिक उत्पादन वाला पशु ही खरीदें
  • हाल ही में बच्चा दिये, 2 अथवा 3 ब्यांत के पशु को ही खरीदना चाहिए।
  • पशु खरीदने से पहले लगातार 3 समय के दूध को निकालकर देख लेना चाहिए।
  • खरीदे गये पशु को तुरन्त रोगों से बचाव के टीके लगवाने चाहिए।
  • भैंस को जुलाई से फरवरी के मध्य खरीदना ठीक रहता है क्योंकि, भैंस बच्चे देने में सीजनल है।
  • पुराने पशुओं की 6 ब्यांत के बाद छंटनी कर देनी चाहिए तथा कम उत्पादक अथवा अनुत्पादक पशुओं की भी समय-समय पर छंटनी करते रहना चाहिए तथा उनकी जगह नये पशुओं को रखना चाहिए।
पशु आवास
  • पशुशाला का निर्माण ऊंचे एवं हवादार स्थान पर करें।
  • पशु के खड़े होने का स्थान आगे से पीछे की ओर ढाल वाला हो एवं खुरदरा होना चाहिए।
  • पशुशाला की छत 2.25 मीटर ऊंची होनी चाहिये।
  • पशुओं को चारा हेतु जमीन से 50 सें.मी. ऊंचाई पर पक्की चरी बनायी जानी चाहिये, जिसकी लम्बाई 75 सें.मी.,
  • चैड़ाई 60 सें.मी. एवं गहराई 40 सें.मी. होनी चाहिये एवं इसकी प्रति दिन सफाई करनी चाहिये।
मुंहपका बीमारी

यह बीमारी सूक्ष्म विषाणु के कारण पैदा होती है। यह बीमारी भैंस, गाय, भेड़-बकरी, ऊंट आदि में तेजी से फैलती है। यह रोग बीमार पशु से सम्पर्क करने से, पानी, घास, दाना, बर्तन, दूध निकालने वाले व्यक्ति के हाथों से, हवा के द्वारा लोगों के आवागमन से फैलता है। रोग ग्रस्त पशु को 104-106 डि.फोरनहायट तक बुखार हो जाता है। तेज बुखार के कारण पशु के मुंह के अन्दर, गालों, जीभ, होंठ, तालू व मसूड़ों के अन्दर, खुरों के बीच तथा कभी-कभी थनों व अयन पर छाले पड़ जाते है। छाले फटने के कारण पशु को दर्द होता है और पशु खाना-पीना बन्द कर देता है। पशु लंगड़ाकर चलने लगता है। मुंह से लार आने लगता है।

दुग्ध उत्पादन में कमी आ जाती है। इस रोग का कोई विशेष उपचार नहीं है। परन्तु लक्षणों के आधार पर उपचार के लिए एन्टीबायोटिक टीके लगाये जाते है। मुंह में बोरो-ग्लिसरीन तथा खुरों में किसी एंटीसेप्टिक लोशन या क्रीम का प्रयोग किया जाता है। इस बीमारी से बचाव हेतु पशुओं को पोलिवेलेट वेक्सीन के वर्ष में दो बार टीके अवश्य लगवाने चाहिए। पहला टीका एक माह की उम्र में, दूसरा तीसरे महीने में और तीसरा 6 माह की उम्र में तथा फिर हर साल दो बार टीके अवश्य लगवायें। ध्यान रहे बीमार पशु को अन्य पशुओं से दूर ही रखें।

पशुओं में टीकाकरण

पशुओं में विभिन्न प्रकार की बीमारियां विभिन्न ऋतुओं में लगती हैं लेकिन कुछ बीमारियां वर्षा में लगती हैं जो की पशुपालकों को भारी क्षति पहंचाती हैं क्योंकि बीमार पशुओं का उत्पादन कम हो जाता है तथा कुछ बीमारियों में मृत्यु भी हो जाती हैं लेकिन यदि पशुपालक अच्छी तरह से ध्यान देतो अपने पशुओं को इन सभी बीमारियों से आसानी से बचाया जा सकता है। क्योंकि बहुत सी बीमारियों के टीके वर्षा शुरू होने से पहले ही लगा देते हैं। जिससे पशुओं में बीमारी लगने की सम्भावना कम हो जाती है कुछ बीमारियों के टीकों के लगाने का समय व खुराक नीचे दिये जा रहे है।

क्र.स. पशु रोग अवयस्क पशुओं में टीका लगाने की उम्र वयस्क पशुओं में प्रति वर्ष टीका लगवायें पहला टीका दूसरा टीका तीसरा टीका

1. खुरपका मुँहपका 3 सप्ताह 3-3.5 माह 6 माह मार्च/अप्रैल एवं अक्टूबर/नवम्बर
2. लंगड़िया बुखार 6 माह –  मई-जून
3. गलाघोटू 6 माह –  मई-जून


Dr. Rajesh Kumar Singh

Jamshedpur, Jharkhand, India
rajeshsinghvet@gmail.com
9431309542